यादव सहित कुछ जातियां आएंगी सामान्य श्रेणी में!, OBC की लिस्ट में हो सकता है हेरफेर

नई दिल्ली : आजादी के बाद जनगणना के साथ पहली बार होने वाली जातिवार गणना के आंकड़े आने के बाद कई जातियों को ओबीसी की सूची से बाहर होना पड़ सकता है। इसी तरह से आर्थिक, सामाजिक रूप से पिछड़ी कई जातियों की ओबीसी सूची में इंट्री भी मिल सकती है। सरकार की कोशिश जातिवार जनगणना को आधार बनाकर ओबीसी के नाम पर हो रही जाति की राजनीति को पूरी तरह से धवस्त करने की है। माना जा रहा है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की सर संघचालक मोहन भागवत के साथ चर्चा के बाद इसे हरी दे दी गई। बताया जाता है कि उक्त बैठक में गृह व सहकारिता मंत्री अमित शाह भी मौजूद थे।
जातिवार गणना को खत्म करने की रणनीति
उच्च पदस्थ सूत्रों के अनुसार लंबे समय से जातियों की गोलबंदी का हथियार बनी जातिवार गणना को हमेशा के लिए खत्म करने के लिए पूरी तरह से लंबी सोच-विचार के बाद यह फैसला लिया गया। ध्यान देने की बात है कि पलक्कड में हई आरएसएस की समन्वय समिति की बैठक में साफ किया गया कि आरएसएस जातिवार गणना के खिलाफ नहीं है, सिर्फ इसका राजनीतिक इस्तेमाल नहीं होना चाहिए। इसीलिए इसे जनगणना के साथ जोड़ा गया ताकि देश में सभी धर्मों में मौजूद सभी जातियों की संख्या और उनकी आर्थिक, सामाजिक, शैक्षणिक स्थिति के ठोस आंकड़े उपलब्ध हो सके।
जातिवार गणना को स्थायी स्वरूप देने की योजना
सूत्रों के अनुसार कैबिनेट की बैठक में न सिर्फ आगामी जनगणना के साथ-साथ जातिवार गणना कराने का फैसला किया गया, बल्कि आने वाले समय में इसे स्थायी स्वरूप देने पर विचार किया गया। यानी भविष्य में हर 10 साल पर होने वाली जनगणना के साथ-साथ जातिवार गणना भी की जाएगी। हर 10 साल में देश की सभी जातियों के शैक्षणिक, सामाजिक और आर्थिक आंकड़े आने की स्थिति में उन जातियों की पहचान आसानी से की जा सकेगी, जिनकी स्थिति अन्य जातियों से बेहतर होगी।
ओबीसी सूची में बदलाव के लिए ठोस आधार
जाहिर है यह ओबीसी की सूची में नई जातियों को शामिल करने और पहले से शामिल जातियों को बाहर निकालने का ठोस आधार बन सकता है। वैसे यह देखना होगा कि भविष्य में उस वक्त के राजनीतिक हालात को देखते हुए तत्कालीन सरकार किस तरह से इस पर फैसला करती है। वहीं ठोस आंकड़े होने की स्थिति में ओबीसी सूची को दुरूस्त करने के लिए सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाने का विकल्प भी होगा। इस समय ठोस आंकड़े नहीं होने के कारण ऐसा नहीं हो पा रहा है।
1931 के आंकड़ों पर आधारित है आरक्षण
इस समय देश में सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़ी जातियों का एक मात्र आंकड़ा 1931 की जनगणना का है और उसी के आधार पर देश में पिछड़ी जातियों की 52 फीसद आबादी निर्धारित कर उनके लिए 27 फीसद आरक्षण का प्रविधान किया गया। लेकिन अंग्रेजों ने 1941 में द्वितीय विश्व युद्ध के बीच खर्च का हवाला देकर 1941 में जातिवार गणना नहीं कराई और आजादी के बाद 1951 से विभिन्न सरकारों ने इसे ठंडे बस्ते में डाल दिया।
सर्वे आधारित घोषणाओं पर भी उठते रहे सवाल
1931 के आंकड़ों पर 1991 में ओबीसी आरक्षण की व्यवस्था पर सवाल खड़े किये गए, लेकिन अद्यतन आंकड़े जुटाने की कोशिश नहीं हुई। विभिन्न राज्यों में सर्वे के आधार पर समय-समय पर ओबीसी जातियां घोषित होती रहीं, लेकिन उन सर्वेक्षणों पर भी सवाल उठते रहे। 2011 में संप्रग सरकार ने सामाजिक आर्थिक जातीय जनगणना जरूरी कराई, इसे मूल जनगणना से बाहर रखकर सर्वेक्षण के रूप में किया गया। जिनमें बड़े पैमाने पर गड़बड़ी के कारण मनमोहन सिंह और नरेन्द्र मोदी दोनों सरकारों ने इसे जारी नहीं करने का फैसला किया।