जाति गिनती में मुस्लिम एंगल!, ऐसा हुआ तो बवाल तय है

डॉ संतोष मानव
नरेंद्र मोदी जाति क्यों गिनवा रहे हैं? तरह-तरह की बात है। लेकिन, पिछले दो-तीन दिनों की बतकही से जो बात उभर रही है, उसमें से एक बात खतरनाक है। अभी तक तो इतना ही कहा गया है कि जनगणना में जाति भी पूछी जाएगी। लेकिन, इसके पीछे सरकार की मंशा की पड़ताल करते – करते मुस्लिम एंगल तक लोग पहुंच रहे हैं। यह एंगल तलाशना गलत भी नहीं कहा जा सकता। इसलिए कि यह सरकार और बीजेपी मुस्लिम आरक्षण के सख्त खिलाफ है। खुद मोदी कह चुके हैं कि वे धर्म के आधार पर आरक्षण नहीं होने देंगे। इसलिए भी कि यही मोदी कहते रहे हैं कि उनके लिए चार ही जातियां हैं – गरीब, युवा, अन्नदाता यानी किसान, और नारी यानी महिला। फिर अचानक से यूं टर्न क्यों? इसी यू टर्न से मंशा पर अनेक सवाल खड़े हो रहे हैं, जिसमें से एक मुस्लिम एंगल भी है। जाति गिनती में तीन से चार साल लगेंगे। पाकिस्तान से युद्ध हुआ, तो और देर। पर सवाल तो सवाल है। भले वह तीन साल बाद की स्थिति हो। आइए, मामला समझते हैं।
मुस्लिम भी अनुसूचित जनजाति
अनुसूचित जनजाति यानी आदिवासी की सूची में 750 से ज्यादा जातियां हैं। इस विशाल देश में सभी जातियां एक राज्य में नहीं मिलती और सूची में भी फेरबदल होता रहता है। जैसे झारखंड में भोक्ता समाज अनुसूचित जाति से अनुसूचित जनजाति हो गया। यानी एससी से एसटी। हर कैटेगरी में यह होता रहा है/हो रहा है। इसमें कुछ गलत भी नहीं है। बहरहाल, मध्यप्रदेश में आदिवासियों की 90 जातियां निवास करती हैं, तो छत्तीसगढ़ में 42 और झारखंड में 32. प्रमुख जातियों में गोंड, भील, संताल, मुंडा, उरांव, खड़िया, बोडो, कोल, सहरिया, मिजो, नगा आदि हैं। यह सभी प्रकृति/मूर्तिपूजक हैं। पर यह जानकर आपको आश्चर्य होगा कि जनजातियों में मुस्लिमों की जातियां भी हैं। जैसे उत्तराखंड में एक जाति है- भंगी। ये लोग इस्लाम धर्म को मानते हैं, लेकिन जनजाति की लिस्ट में हैं। इसी तरह गुजरात में एक बड़ी संख्या वाली जाति है वनगूजर। वनगूजर भी इस्लाम धर्म के उपासक हैं। लेकिन अनुसूचित जनजाति की लिस्ट में हैं। स्वभाविक है कि जनजातियों की सूची में ऐसे और भी नाम होंगे।
मुस्लिम दलित हैं मांग उठी पर —
अनुसूचित जाति यानी दलितों में 1270 से ज्यादा जातियां हैं। सभी जातियां एक राज्य में नहीं मिलती। केरल में 35 तो राजस्थान में 46 जातियां अनुसूचित जाति की लिस्ट में हैं। अनुसूचित जाति में हिंदू जातियों के साथ ही सिख और बौद्ध धर्म की उपासक जातियां भी हैं। लेकिन, इस्लाम धर्म मानने वाली जातियां नहीं हैं। इस बात पर समय-समय पर बवाल हुआ, मामला अदालत तक गया पर हुआ कुछ नहीं।
सूची में पांच हजार से ज्यादा जातियां
सबसे ज्यादा गड़बड़ी पिछड़ी जाति और अति पिछड़ी जाति की सूची में है। इस सूची में पांच हजार से ज्यादा जातियां हैं। उप जाति गिनना तो अति कठिन है। माना जाता है कि एक सौ बीस के आसपास इस्लाम मानने वाली जातियां इस लिस्ट में हैं। पश्चिम बंगाल में पिछड़ी जाति की सूची में 179 जातियां हैं पर इसमें से 118 जातियां इस्लाम धर्म को मानती हैं और यह पश्चिम बंगाल में पिछड़ी जाति की कुल जनसंख्या का 66 प्रतिशत है। बिहार में जुलाहा, अंसारी, मुस्लिम नाई, मुस्लिम तेली जैसी जातियां पिछड़ी या अति पिछड़ी जाति की लिस्ट में है तो यूपी में अंसारी, कुरैशी, मेव इस लिस्ट में हैं।
सामान्य श्रेणी में तो कमाल है
कमाल यह है कि सामान्य जाति की कोई अधिकृत सूची ही नहीं है। माना यह जाता है कि जो जातियां किसी सूची में नहीं हैं, वे सामान्य श्रेणी में हैं। परिणाम यह है कि बिहार में जो जाति अति पिछड़ी जाति की सूची में हैं, वही किसी दूसरे राज्य में सामान्य श्रेणी में हैं। राजपूत जाति गुजरात में पिछड़ी जाति की सूची में है। यह हाल तब है, जबकि गुजरात में राजपूत रियासतें अच्छी संख्या में थी। राजस्थान में कुछ राजपूत सामान्य श्रेणी में हैं, तो कुछ पिछड़ी जाति की सूची में हैं। मुस्लिमों में से सामान्य श्रेणी में सैय्यद, शेख, पठान, मुगल, खान, मिर्जा, मलिक जैसी 15-20 जातियां हैं। राजस्थान में तो एक जाति दो जिलों में सामान्य श्रेणी में है, तो शेष जिलों में पिछड़ी जाति की सूची में हैं।
जानिए कि जाति का खेल निराला है
यूपी, राजस्थान जैसे राज्यों में राजपूतों में दो-तीन श्रेणी हैं। कुछ सामान्य तो कुछ पिछड़ी जातियों की सूची में हैं। सामान्य बोलचाल में इनके लिए 24,22,20 कैरेट का राजपूत चलता था/चलता है। सारे सामाजिक संबंध थे/है, पर विवाह का संबंध नहीं था। अब कम संख्या में पर विवाह भी होने लगा है। यह सब 1990 के बाद प्रारंभ हुआ। पर अब भी वैवाहिक संबंध नहीं के बराबर ही हैं। यह जानकर आश्चर्य होगा कि उत्तराखंड में एक नेता राम सिंह चौहान ने चुनाव में सामान्य सीट से नारायण दत्त तिवारी को हराया। वाजपेयी सरकार में मंत्री बने। समझा गया कि चौहान राजपूत हैं। बाद में पता चला कि चौहान दलित हैं। मुगलकाल में युद्ध में पराजित या युद्ध से पलायन करने वाले राजपूतों को दोयम दर्जे का समझा गया। उनकी बस्ती गांव से बाहर बसी। वैवाहिक संबंध तोड़ लिए गए। कालांतर में उन्होंने दलित या दूसरी जातियों की महिलाओं से वैवाहिक संबंध बनाए और उनकी जाति बदल गई। पर सरनेम नहीं बदला। उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश, राजस्थान आदि में आपको भामटा राजपूत, लोनिया या नोनिया राजपूत, किरार राजपूत या ऐसे ही दूसरे नाम सुनने को मिलेंगे, जो हैं तो राजपूत लेकिन दलित या पिछड़ी जातियों की सूची में हैं। उत्तर प्रदेश में एक नेता हैं दारा सिंह चौहान और उनकी जाति यानी लोनिया राजपूत पिछड़ी जाति की सूची में है। मध्यप्रदेश के नेता शिवराज सिंह चौहान की जाति किरार भी पिछड़ी जाति की सूची में है। जबकि किरारों का वैवाहिक संबंध राजपूतों में भी होता है। शिवराज सिंह चौहान की सगी भांजी का विवाह उत्तर प्रदेश के एक राजपूत परिवार में हुआ है। यही कहानी लोध -लोधी-लोधा की है। हैं राजपूत/कहलाते हैं क्षत्रिय। बड़ी किसान जाति है। लेकिन लोध-लोधी-लोधा पिछड़ी जाति की सूची में है। उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह इस समाज के बड़े नेता थे।
आरक्षण और मंडल दौर के बाद बहुत कुछ बदला
वैसे आरक्षण और मंडल दौर के बाद बहुत कुछ बदला है। यह ही नहीं बदला कि 20 और 24 कैरेट राजपूतों में कम ही सही वैवाहिक संबंध होने लगे, यह भी बदला कि यादव, कुर्मी, कुशवाहा कभी खुद के क्षत्रिय होने का दावा करते थे, अब नहीं करते। झारखंड के महतो अब क्षत्रिय होने का दावा नहीं करते। पिछले दिनों मध्यप्रदेश में झाबुआ और अलीराजपुर जिले के सुदूर गांवों तक दौरे पर गया तो अनेक अधिकारी – कर्मचारी भदौरिया – तोमर सरनेम वाले मिले। मध्यप्रदेश में सामान्यतः ये सरनेम चंबल के राजपूत लिखते हैं, जैसे नरेंद्र सिंह तोमर लेकिन झाबुआ – अलीराजपुर में अनेक भदौरिया – तोमर आदिवासी मिले। बताया गया कि ये लोग अपने को राजपूत मानते हैं। राजपूत कहलाने पर आपत्ति नहीं करते। हाल तक खुद को राजपूत कहलाना ही पसंद करते थे। यानी हिंदुस्तान में धर्म परिवर्तन ही नहीं हुआ, जाति परिवर्तन भी होता रहा है। कल तक खुद को क्षत्रिय मानने वाले मराठा, गूजर, जाट और राजपूत तक अब क्षत्रिय कहलाने की मांग नहीं करते, वे आरक्षण मांग रहे हैं।
आरक्षण का आधार सामाजिक-आर्थिक पिछड़ापन
बहरहाल, देश के संविधान में आरक्षण का आधार सामाजिक -आर्थिक पिछड़ापन माना गया है। धर्म आरक्षण का कोई आधार नहीं है। बावजूद इसके चाय की चुस्की के साथ जब यह कहा जाता है कि जाति गिनने के पीछे मोदी का अदृश्य प्लान है, तो कान खड़े हो जाते हैं। कान इसलिए कि 24 के चुनाव में धर्म और आरक्षण खूब गूंजा था। गूंज उठाने वाले खुद मोदी थे।
बावजूद इसके नहीं लगता कि देश के मुस्लिम धर्म के आधार पर आरक्षण से वंचित किए जाएंगे। क्योंकि यह संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन होगा। सर्वोच्च न्यायालय की समीक्षा के दायरे में भी होगा। पर समाज में बहस तो होने लगा है। हालांकि अभी सबकुछ ड्राइंग रूम या चाय की पटरियों तक है। पर यह भी सच है कि कठिन ही सही, लेकिन नीतिगत बदलाव, कानूनों में बदलाव से यह संभव भी है। फिर सरकार तो सरकार है, ऊपर से मोदी सरकार। क्या नहीं? ( लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। राजनीति और समाज पर पैनी निगाह रखते हैं/लिखते हैं)