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हिंदी विरोध के पीछे ठाकरे ब्रदर्स का बिग प्लान क्या है?

Hindi controversy: राज ठाकरे तुम गुंडा ही हो, तुम गुंडा ही थे ! गुंडा ही रहोगे? सवाल मलाई का है और बहाना मराठी का है !

डॉ संतोष मानव
लंबी-चौड़ी तकरीरों से हिंदुस्तान संवरता तो कब का संवर चुका होता। नेताओं की बोली में सच्चाई होती, तो वे ईश्वर की तरह पूजे जाते और ऐसे हालात में जब कोई राज ठाकरे नामक नेतानुमा प्राणी यह कहे कि मराठी की बात करने वाला गुंडा है, तो समझ लो, हम गुंडा ही हैं, अपना भी मन करता है कि कह दें – ऐ राज ठाकरे तू गुंडा ही है! गुंडा ही था, गुंडा ही रहेगा ! ये राजनीतिक, ये विषधर ! विष ही छोड़ेंगे, जब भी मुंह खोलेंगे! भाषा तल्ख हो सकती है पर सोचिए कि नेताओं की जमात के 99 प्रतिशत राज ठाकरे की तरह ही हमें लड़ाते – भिड़ाते रहे हैं और अपनी दाल-रोटी चलाते रहे हैं, तो ऐसे में भाषा कैसी होनी चाहिए? प्रयास करो, तब भी तल्खी रह जाती है।
इतना धन आता कहां से है ?
मैं ऐसा कह रहा हूं, तो इसके वाजिब कारण हैं। कोई खोजी पत्रकार अगर राज ठाकरे की संपत्ति का पता लगाए, तो उसकी आंखें फटी रह जाएगी। वह कह उठेगा- राज तुम एमपी, एमएलए तो रहे नहीं कभी, फिर कहां से पाया इतना धन? क्या गुंडई और वसूली से? और धन ही नहीं, इस ठाकरे की जीवन शैली का विश्लेषण कोई करे, तब भी यह सामने आएगा कि ऐसा जीवन तो पैदाइशी अरबपति नहीं जीते! फिर सवाल तो है कि राज ठाकरे ही नहीं, इन जैसे दूसरे नेताओं के पास इतना धन आता कहां से है ?
लुंगी उठाओ, पुंगी बजाओ क्यों?
और शिवसेना का इतिहास क्या है? कभी महाराष्ट्र में बसे दक्षिण भारतीय लोगों के खिलाफ आंदोलन- लुंगी उठाओ, पुंगी बजाओ जैसे स्लोगन। आंदोलन क्या सरासर गुंडागर्दी! कभी मारवाड़ियों, कभी गुजरातियों, कभी उत्तर भारतीयों तो कभी —-। इनका इतिहास ही दागदार है, यह राजनीतिक पार्टी कम गुंडों की जमात ज्यादा है। जब नेता ही गुंडा हो, तो अनुयायी कैसे होंगे?
अपनी दाल और रोटी
दूसरे राज्यों के लोगों और भाषा के नाम पर अपनी दाल-रोटी का इंतजाम करने वाले दोयम दर्जे के लोग। साठ-पैसठ साल से यही करते रहे हैं। और ताजा विवाद क्या है? केंद्र का त्रिभाषा फार्मूला – कि बच्चों को तीन भाषा की शिक्षा दो- एक स्थानीय, हिंदी और अंग्रेजी। क्या बुरा है इसमें। हिंदी प्रदेश है, तो हिंदी, अंग्रेजी और कोई भी एक देशी भाषा। अच्छी बात है, मातृभाषा, अंतरराष्ट्रीय भाषा अंग्रेजी और देश में सर्वाधिक बोली – समझी जाने वाली हिंदी। महाराष्ट्र है, तो मराठी, हिंदी और अंग्रेजी। लेकिन, ठाकरे बंधुओं की नजर में यह हिंदी थोपना हो गया, मराठी को दबाना हो गया! कैसे भाई कैसे? यह तो स्वाभाविक उन्नति के लिए अनिवार्य जैसा है। पर नहीं, अपनी दाल-रोटी के लिए ठाकरे ब्रदर्स- उद्धव और राज ठाकरे ने इसे मुद्दा बना दिया – हिंदी नहीं-हिंदी नको। देवेंद्र फडणवीस की कायर सरकार ने त्रिभाषा फार्मूला वापस ले लिया और ठाकरे बंधुओं ने बुलाई विजय सभा! काहे की विजय, किस पर विजय? इसी सभा में राज ठाकरे ने कहा कि मराठी की बात करना गुंडई है, तो समझो हम गुंडे हैं।
बीस साल बाद एक साथ आए
बीस साल से दोनों अलग-अलग थे। इनकी अपनी -अपनी दुकान है। शिवसेना और महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना। शिवसेना के तो कुछ ग्राहक थे। महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना का तो कोई खरीदार ही नहीं था- कभी एक, तो कभी दो एमएलए। अब बीस साल बाद ठाकरे ब्रदर्स साथ आ गए हैं, शायद अपनी -अपनी दुकान को मिलाकर एक भी करेंगे। फिलहाल दोनों की दुकान उजाड़ – सी है. मर्जर से कदाचित बहार आ जाए। नए सिरे से प्रचार और ब्रांडिंग कभी-कभी काम कर जाती है। पर इस एकत्रीकरण या मर्जर का वह कारण नहीं है, जो बताया जा रहा है, दिखाने का प्रयास किया जा रहा है। कारण कुछ और है!
कहीं पे निगाहें, कहीं पे निशाना
ये बात करते हैं मराठी भाषा की- मराठी से किसे बैर हो सकता है? मराठी और हिंदी की लिपि एक है- देवनागरी। इन पंक्तियों का लेखक तेरह साल महाराष्ट्र में था। चार माह बाद ही मराठी समझने, बोलने, अनुवाद करने लगा था। अपने कामकाज में सहूलियत के लिए यह आवश्यक था। अब जिसे भी महाराष्ट्र में रहना है, कामकाज करना है, आगे बढ़ना है, उसे मराठी सीखनी ही पड़ेगी। वह कौन होगा, जो मराठी से बैर पालकर अपनी टांग पर कुल्हाड़ी मारेगा? और बैर हो भी क्यों ? अपना देश है, अपनी ही भाषा है। कौन बैरी होगा? कदाचित कोई नहीं। पर ठाकरे बंधुओं को कौन समझाए?
अस्सी हजार करोड़ का सवाल है
अब गणित समझिए। उद्धव ठाकरे की शिवसेना हो या राज ठाकरे की महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना। दोनों उजड़ती दुकान है। मुंबई महानगरपालिका पर दो दशक से शिवसेना का कब्जा है। मुंबई महानगरपालिका का सालाना बजट अस्सी हजार करोड़ रुपए का है। यह बजट आठ राज्यों के बजट से ज्यादा है। यानी मुंबई अपने आप में महानगर ही नहीं, एक राज्य सरीखा है। अस्सी हजार करोड़ के बजट में से सत्तारूढ़ पार्टी, उसके नेतागण-कार्यकर्तागण आधा परसेंट तो पाते ही होंगे? यानी दांव पर सालाना दो सौ करोड़ रुपए है। विधानसभा के चुनाव में बीजेपी बंपर वोटों के साथ जीती है। ठाकरे बंधुओं को लग रहा है कि मुंबई महानगरपालिका में अबकी उनकी नहीं चलेगी। चुनाव भी नजदीक है। बीजेपी बाजी मार लेगी। शिवसेना वहां से उजड़ गई, तो कहीं की नहीं रहेगी। मलाई कहां से आएगी? महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना वाले राज ठाकरे को लगता है कि बीस साल में कुछ कर पाए नहीं, उम्र भी ढलान पर है, कदाचित उद्धव के साथ आकर कुछ पा जाएं। तो खेल बचाने और पाने का है। सवाल मलाई का है और बहाना मराठी का है।
हिंदी वाले तुम भी खुश रहो
ब्रदर्स ठाकरे कहते हैं कि उनका हिंदी से विरोध नहीं है (यानी हिंदी वालों तुम भी नाराज़ नहीं होना) विरोध उन लोगों से है, जो महाराष्ट्र में रहकर मराठी बोलने और सीखने का प्रयास नहीं करते। अजीब तर्क है? प्रिय ठाकरे ब्रदर्स महाराष्ट्र में रहना है, तो मराठी लोग सीखेंगे ही। सीख ही रहे हैं। बोल ही रहे हैं। और भाषा ही नहीं, खान-पान, लहजा, संस्कार सब। यह परिस्थितियां खुद करवाती है। कृपया तुमलोग (महाराष्ट्र में आप का प्रचलन बहुत कम होता है, वहां बड़ों को भी सामान्यतः तुम ही बोलते हैं) टीचर बनने का प्रयास नहीं करो।
जनता बजाएगी कान के नीचे
राज ठाकरे ने कहा है कि जो मराठी नहीं सीखे, उसके कान के नीचे बजाओ। गुंडा भाई, इस बार मराठी जनता ही तुम लोगों के कान के नीचे बजाने वाली है। जैसे विधानसभा के चुनाव में बजाया। इसलिए कि तुम्हारी नौटंकी मराठी जनमानस समझ चुका है। हिंदी भाषियों, ठेला, रेहड़ी वालों को सताना बंद कर दो। ये गुंडई छोड़ दो। कब तक गुंडा कहलाओगे, क्या गुंडा ही रहोगे? (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। राजनीतिक-सामाजिक विषयों पर लिखते – बोलते हैं)

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