
नई दिल्ली: जनगणना 2027की घोषणा के साथ ही परिसीमन (delimitation) पर एक नई बहस शुरू हो गई है। कुछ लोगों का कहना है कि इससे उन राज्यों को नुकसान होगा जिन्होंने अपनी जनसंख्या को बेहतर ढंग से नियंत्रित किया है। लेकिन यह तर्क कुछ गलत धारणाओं पर आधारित है।
1872 के जनगणना के आंकड़ों पर रिसर्च में पता चलता है कि भारत के सभी क्षेत्रों में अलग-अलग समय पर जनसंख्या तेजी से बढ़ी है।
जनसंख्या परिवर्तन के पैटर्न के अनुसार ही है
दक्षिण भारत में 1951 तक जनसंख्या तेजी से बढ़ी। उसके बाद उत्तर भारत में जनसंख्या बढ़ने की गति तेज हो गई। केरल पहला राज्य था जिसने 1881 और 1931 के बीच अपनी जनसंख्या को दोगुना कर लिया था। वहीं, इस मामले में तमिलनाडु दूसरा राज्य था। इसके बाद फिर से केरल ने 1931 और 1971 के बीच अपनी जनसंख्या को दोगुना कर लिया। इसके बाद उसकी जनसंख्या स्थिर होने लगी। यह बात सुनने में भले ही अजीब लगे, लेकिन यह सच है। यह दुनिया भर में जनसंख्या परिवर्तन के पैटर्न के अनुसार ही है।
‘जनसंख्या विस्फोट’ गंभीर वैश्विक समस्या
वहीं, उत्तर भारत में 1881 और 1951 के बीच सबसे कम दर से जनसंख्या बढ़ी। उत्तर भारत में जनसंख्या बढ़ने की असली शुरुआत 1950 के दशक में हुई। यह वही समय था जब ‘जनसंख्या विस्फोट’ एक गंभीर वैश्विक समस्या के रूप में सामने आया था। बाद में उत्तर भारत में जनसंख्या वृद्धि को सामाजिक और सांस्कृतिक पिछड़ापन और परिवार नियोजन की विफलता माना गया। लेकिन ऐसा करते समय लंबे समय के आंकड़ों को ध्यान में नहीं रखा गया।
उतनी सीटें नहीं मिलतीं जितनी मिलनी चाहिए
1976 में, 1971 की जनगणना के आधार पर परिसीमन को 25 वर्षों के लिए रोक दिया गया था। 2001 में भी ऐसा ही किया गया और इसे अगले 25 वर्षों के लिए रोक दिया गया। इसलिए, ‘एक व्यक्ति, एक वोट, एक मूल्य’ का संवैधानिक सिद्धांत अब मान्य नहीं है। बिहार में एक वोट का मूल्य तमिलनाडु और केरल में एक वोट के मूल्य से बहुत कम है। इसका मतलब है कि बिहार में लोगों की संख्या के हिसाब से उन्हें संसद में उतनी सीटें नहीं मिलतीं जितनी मिलनी चाहिए।
इसका संविधान पर क्या असर होगा
नीति निर्माताओं को यह पता लगाना होगा कि इस असमानता को संवैधानिक वादे के साथ कैसे मिलाया जाए। यह असमानता 2001 से और भी बढ़ गई होगी। संविधान में समानता का अधिकार एक महत्वपूर्ण सिद्धांत है। लेकिन संविधान खुद ही कुछ मामलों में इस सिद्धांत को छोड़ देता है। यह उन लोगों के फायदे के लिए किया जाता है जो गरीब और पिछड़े हैं। गरीबों को सब्सिडी और पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण इसके उदाहरण हैं। परिसीमन पर बहस में यह सवाल भी उठेगा कि क्या समानता के सिद्धांत को अमीर लोगों या क्षेत्रों के फायदे के लिए छोड़ा जा सकता है और इसका संविधान पर क्या असर होगा।
कुछ दशकों में यह कम हो गई है
यह फैसला तो राजनेताओं को करना है। लेकिन यह जरूरी है कि यह बहस आंकड़ों पर आधारित हो। उत्तर भारत, यानी हिंदी भाषी क्षेत्र, भारत के अन्य क्षेत्रों की तुलना में बहुत तेजी से नहीं बढ़ा है। राष्ट्रीय जनसंख्या में इसकी हिस्सेदारी 2001 में लगभग 50% थी, जो 2011 में घटकर 46% हो गई है। दक्षिण भारत में 150 वर्षों में से 100 वर्षों तक जनसंख्या तेजी से बढ़ी है। 1881 में इसकी हिस्सेदारी लगभग 22% थी, जो 1951 में बढ़कर लगभग 26% हो गई। 1971 में यह लगभग 25% रही। लेकिन पिछले कुछ दशकों में यह कम हो गई है।
इसे भी पढ़ें : पांच बीवियों का ‘इश्कबाज़’ शौहर, छठी शादी करने की कर रहा है तैयारी, बोला- दिल नहीं भर रहा