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बिहार के इस गांव को कहते हैं ‘आईएएस फैक्ट्री’, बिहारियों में IAS बनने का क्यों होता है जुनून? जानें यहां

बिहारियों के डीएनए में शिक्षा को लेकर एक गहरी जागरूकता रही है। तर्क और विवेक के आधार पर निर्णय लेने की परंपरा यहाँ सदियों से प्रचलित है, जो शिक्षा के बिना संभव नहीं। आचार्य चाणक्य, जिन्होंने ‘अर्थशास्त्र’ जैसी महान कृति लिखी, स्वयं बिहार के रहने वाले थे। यह दर्शाता है कि बिहार में शिक्षा का महत्व हजारों वर्षों से रहा है।

धर्मपाल की पुस्तक The Beautiful Tree: Indigenous Indian Education in the Eighteenth Century के अनुसार, विलियम एडम के 1835–38 के सर्वेक्षण में बंगाल और बिहार के लगभग 1,00,000 गांवों में प्राथमिक विद्यालय थे। इनमें ब्राह्मण, कायस्थ, कोइरी, कुर्मी, तेली के साथ-साथ निम्न जातियों जैसे डोम, चांडाल आदि भी पढ़ते थे। पटना और बक्सर में औसतन 100-150 विद्यालय थे, जहाँ विभिन्न जातियों के बच्चे शिक्षा प्राप्त करते थे। इस प्रकार बिहार में शिक्षा का सामाजिक स्तर व्यापक था।

रोजगार का मुख्य साधन शिक्षा

अंग्रेजों के आने के बाद बिहार में आधुनिक शिक्षा का विस्तार हुआ, जिससे पारंपरिक विद्यालयों का स्वरूप बदल गया। आज भी बिहार में शिक्षा और सरकारी नौकरी को प्राथमिकता दी जाती है। रिटायर्ड आईएएस अधिकारी विजय प्रकाश के अनुसार, बिहार में कृषि अच्छी होने के बावजूद व्यवसाय और उद्योग का विकास कम हुआ। इसलिए यहाँ के लोग शिक्षा के जरिए ही सरकारी नौकरियों जैसे आईएएस, आईपीएस आदि पदों को प्राथमिकता देते हैं। इसके अतिरिक्त, समुद्री व्यापार या व्यवसाय करने की सामाजिक परंपराओं ने बिहारियों को बाहर व्यापार से रोक दिया, जिससे रोजगार का मुख्य साधन शिक्षा बनी।

गांवों के नाम वेदों से प्रेरित

तकनीकी शिक्षा के अभाव के कारण बिहार के युवाओं का झुकाव सामान्य शिक्षा की ओर ज्यादा रहा। इंजीनियरिंग कॉलेजों और आईटीआई की कमी के कारण जेनरल एजुकेशन के जरिए प्रशासनिक पदों तक पहुँचना आसान माना गया। बिहार में शिक्षा का महत्व गांवों के नामों में भी झलकता है। कई गांवों के नाम गणितीय आधार पर रखे गए हैं, जैसे दानापुर (प्वाइंट सेंटर), सगुना मोड़ (सौ गुना मोड़), करोड़ी चक आदि। उत्तर बिहार के गांवों के नाम वेदों से प्रेरित हैं, जैसे रीगा, जो ऋग्वेद से लिया गया है। यह बताता है कि शिक्षा और ज्ञान की जड़ें यहां कितनी गहरी हैं।

सहरसा ‘आईएएस फैक्ट्री’

सहरसा जिले का बनगांव गाँव, जिसे ‘आईएएस फैक्ट्री’ भी कहा जाता है, शिक्षा के प्रति यहाँ के लोगों के समर्पण का प्रतीक है। प्रजिल मिश्र (उपाध्यक्ष, उग्रतारा न्यास परिषद) बताते हैं कि बनगांव के लोग शिक्षा को सबसे बड़ी पूंजी मानते हैं। यहाँ के बच्चे न केवल आईएएस और आईपीएस बनने का सपना देखते हैं, बल्कि डॉक्टर, इंजीनियर और अन्य क्षेत्रों में भी नाम कमा रहे हैं। शिक्षा के प्रति इस प्रतिबद्धता ने इस गाँव को एक उत्कृष्ट उदाहरण बना दिया है।

शिक्षा के नए आयाम खुलें

आज बिहार में शिक्षा का स्वरूप बदल रहा है। डिजिटल शिक्षा, कौशल विकास, तकनीकी और व्यावसायिक शिक्षा को बढ़ावा देने के प्रयास हो रहे हैं। सरकार ने कई योजनाएं शुरू की हैं ताकि युवा तकनीकी क्षेत्रों में भी बढ़-चढ़ कर हिस्सा लें। इसके साथ ही निजी संस्थान भी बिहार में शिक्षा के नए आयाम खोल रहे हैं।

प्रशासनिक नौकरियों की ओर झुकाव

बिहार की शिक्षा की गाथा हजारों वर्षों पुरानी है, जिसने यहाँ के लोगों के सोचने-समझने के ढंग और जीवनशैली को आकार दिया है। आईएएस जैसी प्रशासनिक नौकरियों की ओर झुकाव, बिहार के सामाजिक-आर्थिक परिप्रेक्ष्य में शिक्षा के महत्व को दर्शाता है। भविष्य में भी बिहार की युवा पीढ़ी शिक्षा के विभिन्न क्षेत्रों में अपनी छाप छोड़ रही है, जिससे राज्य का समग्र विकास सुनिश्चित होगा।

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