पता है, उम्मीदें क्यों निराशा बन जाती है?
किससे - कितनी उम्मीद रखें, उम्मीदों की सीमा होनी चाहिए

डॉ वंदना अग्रवाल
आपने कई किताबों या कहानियों मे पढ़ा या सुना होगा-ज़्यादा उम्मीदें नहीं रखनी चाहिए। इसलिए कि अक्सर निराशा हाथ लगती है। उम्मीद करना या रखना ग़लत नहीं है,बल्कि ज़रूरत से ज़्यादा उम्मीदें लगाना ग़लत होता है। उम्मीद इसलिए रखनी चाहिए कि जब ज़िंदगी मे हर जगह से हार और तकलीफ़ मिलने लगती है और महसूस होता है – अब कुछ नहीं हो सकता, तब यह उम्मीद ही रोशनी या किरण की तरह साथ देती है-एक दिन सब ठीक हो जाएगा यार।
फिर परेशानी कहां है ?
परेशानी तब शुरू होती है,जब आप जरूरत से ज़्यादा उम्मीद लगा लेते हैं या रखते हैं। हर किसी से,हर चीज़ से,हर सपने से। हमें सोचना चाहिए कि सपनों या शरीर की भी सीमा होती है। ये उतना ही काम करते है,जितना क्षमता होती है। कभी- कभी इन पर जरूरत से ज़्यादा दबाव बनाने या डालने से स्थिति ख़राब ही होती है ।
रिश्ता कुछ भी हो- सीमा आवश्यक है
किसी भी रिश्ते,पढ़ाई,कैरियर या हेल्थ पर अगर आप जरूरत से ज़्यादा दबाव डालेंगे,तो परेशानी आ सकती है और भविष्य में असफलता, एंजाइटी और डिप्रेशन ही मिलेगा। हर एक की अपनी-अपनी काबिलियत होती है,जरूरी नहीं की हर कोई हर चीज़ मेंं परफेक्ट या सर्वगुण संपन्न हो। इसलिए लोगों को उनकी काबिलियत के हिसाब से परखें। जरूरत से ज़्यादा हर चीज़ नुक़सान ही देती है। ज़रूरत है अपनी और दूसरों की सीमाओं और क्षमता को जानने और समझने की ।
ज्यादा उम्मीद यानी बोझ
हम सब अपनी जिम्मेदारियों को जानते,समझते हैं और उम्मीद करते हैं कि सामने वाले भी इस बात की वैल्यू करे। उम्मीदों पर खरे उतरें। ज़रूरत से ज़्यादा उम्मीदें बोझ बनने लगती है, चाहे वह एक माता-पिता का अपने बच्चों से या पति-पत्नी का एक दूसरे से या बॉस का अपने कर्मचारियों से। लोग यह भूल जाते हैं कि उनकी भी अपनी एक जिंदगी है। अपनी खुशियाँ है। ज़्यादा काम के दबाव से लोग अपनी निजी ज़िंदगी और खुशियों पर ध्यान नहीं दे पाते हैं।
सपनों का बोझ
कभी-कभी हम अपने बड़े-बड़े सपनों के बोझ तले भी ठीक से साँस नहीं ले पाते। ज़िन्दगी मैं छोटी-छोटी और जरूरी सपने पहले पूरे करेंगे तो आप ख़ुद ही अपने बड़े सपनों को पूरा करने की और बढ़ेंगे। परेशानी तब आती है,जब आप बड़े सपनों को पूरा करने के चक्कर मैं छोटे सपने को नज़रअंदाज़ कर देते हैं। पति-पत्नी का रिश्ता या माता- पिता या कोई और रिश्ता ही ले लीजिए, जहाँ उम्मीदें और ख़्वाहिशें एक दूसरे से ही और एक दूसरे पर ही होती है, धीरे- धीरे इतनी ज़्यादा बढ़ने लगती है की, वह सब पूरा करते-करते दोनों ख़ुद को ही खो देते हैं। बोझ के नीचे रिश्ता टूट या दूरियां आ जाती है ।
अकेलापन से निराशा
फिर अकेलेपन और निराशा से आपकी मेंटल और फिजिकल हेल्थ भी प्रभावित होती है। एक दूसरे से उम्मीद रखना ग़लत नहीं है, आप ज़िम्मेदारी ले रहे हो, तो उम्मीद भी करनी चाहिए। अपनी और सामने वाले की ज़रूरतें,क्षमता और आवश्यकता अनुसार ही उम्मीद लगाएं,नहीं तो निराशा ही हाथ लगेगी। किसी एक रिश्ते,इंसान या अपने काम या सपने पर इतना प्रेशर मत डालिए कि वह परेशान हो कर दूर चला जाए। किसी की अहमियत उसके जाने के बाद ही पता चलती है, और जब तक आपको यह बात समझ आएगी तब तक बहुत देर हो चुकी होती है ।
सबसे आवश्यक है संतुलन
जिंदगी है तो संतुलन बना कर चलिए, जैसे आप साइकिल चला रहे हैं, तो उतार-चढ़ाव और यू टर्न्स तो आयेंगे ही। बस, अपना फोकस और संतुलन बनाए रखना होगा।
(लेखिका रांची बेस्ड मनोवैज्ञानिक और डेंटिस्ट हैं)