झारखंड की राजनीति में बड़ा उलटफेर? एक मुद्दे ने मचाई सियासी हलचल
झारखंड में सरना धर्म कोड को लेकर उठी मांग अब राजनीतिक बहस का विषय बन चुकी है। राज्य की बड़ी संख्या में रहने वाली आदिवासी जनजातियां इसे अपने पारंपरिक विश्वास का प्रतीक मानती हैं। वर्ष 2020 में राज्य विधानसभा ने इसे जनगणना में अलग पहचान देने का प्रस्ताव पास किया था, लेकिन केंद्र सरकार की ओर से अब तक कोई स्पष्ट फैसला नहीं लिया गया है। झामुमो और कांग्रेस इस मांग का समर्थन कर रहे हैं, वहीं भाजपा पर इस विषय में स्पष्ट रुख न अपनाने के आरोप लग रहे हैं।

रांची: झारखंड में लंबे समय से उठती आ रही सरना धर्म कोड की मांग अब धीरे-धीरे राज्य की राजनीति के केंद्र में आ गई है। यह विषय सिर्फ आदिवासी समुदाय की धार्मिक पहचान का प्रतीक नहीं रहा, बल्कि अब यह राजनैतिक दलों के लिए एक प्रभावशाली मुद्दा बन गया है, जो राज्य की करीब 27% आदिवासी आबादी से सीधे जुड़ा है।
प्राकृतिक आस्था पर आधारित सरना धर्म, जिसे मानने वाले समुदाय जैसे संथाल, मुंडा, हो और उरांव आदि लोग प्रकृति के विभिन्न रूपों—जैसे जंगल, नदी, पहाड़ और वृक्ष—की पूजा करते हैं, इसे अपनी सांस्कृतिक पहचान का अहम हिस्सा मानते हैं।
साल 2020 में झारखंड विधानसभा में सर्वसम्मति से यह प्रस्ताव पारित किया गया था कि सरना धर्म कोड को जनगणना में एक अलग पहचान मिले। यह प्रस्ताव केंद्र सरकार को भेजा गया, लेकिन अब तक इस पर कोई स्पष्ट फैसला नहीं आया है, जिससे यह मुद्दा और गहराता गया।
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राजनीतिक समीकरण और दलों की रणनीति
झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) ने इस मांग को अपने प्रमुख राजनीतिक एजेंडे में शामिल कर लिया है। पार्टी ने साफ कर दिया है कि जब तक सरना कोड को मान्यता नहीं मिलती, राज्य में जनगणना की प्रक्रिया नहीं होने दी जाएगी। इस संबंध में 27 मई को राज्य भर में प्रदर्शन की घोषणा की गई है, जहां सभी जिला मुख्यालयों पर धरने की योजना है। झामुमो के प्रवक्ता विनोद पांडेय ने इस मुद्दे पर भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को कठघरे में खड़ा करते हुए, उसे आदिवासी विरोधी बताया है। उनका कहना है कि केंद्र सरकार का चुप्पी साधे रहना भाजपा की मंशा को सवालों के घेरे में डालता है।
कांग्रेस ने भी इस विषय को अपनी राजनीति का अहम हिस्सा बना लिया है। पार्टी के वरिष्ठ नेता राहुल गांधी ने दिल्ली में हुई बैठक में झारखंड में सरना कोड के मुद्दे पर और अधिक सक्रियता दिखाने का निर्देश दिया है। कांग्रेस प्रदेश इकाई ने भी विरोध प्रदर्शन की तैयारी कर ली है। पार्टी के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष राजेश ठाकुर ने जनगणना फॉर्म में सरना धर्म को अलग दर्जा न देने को लेकर केंद्र सरकार की नीयत पर सवाल उठाया है।
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भाजपा पर दोहरे रुख के आरोप
दूसरी ओर भाजपा खुद को इस विषय पर साफ स्थिति में दिखाने में असफल नजर आ रही है। पार्टी पर यह आरोप है कि वह एक ओर तो सरना कोड की मांग को “अव्यवहारिक” बताती रही है, वहीं दूसरी ओर चुनावी मंचों से इसे लागू करने का वादा भी करती है। असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा ने हाल ही में अपने भाषण में वादा किया था कि भाजपा सत्ता में आई तो सरना कोड को मान्यता दी जाएगी।
पूर्व मुख्यमंत्री चंपई सोरेन ने कांग्रेस पर पलटवार करते हुए कहा कि इतिहास गवाह है कि 1961 में कांग्रेस सरकार ने ही आदिवासी धर्म कोड को हटाया था। उन्होंने आरोप लगाया कि कांग्रेस अब इस मुद्दे को लेकर केवल राजनीतिक नाटक कर रही है।
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क्यों बन गया है यह मुद्दा चुनावी रणनीति का हिस्सा?
आदिवासी वोट बैंक: झारखंड में आदिवासी समुदाय एक बड़ा वोट बैंक है, और सरना कोड को मान्यता दिलाना इस वर्ग को आकर्षित करने का सशक्त माध्यम बन गया है।
राजनीतिक ध्रुवीकरण: झामुमो और कांग्रेस इस मुद्दे को लेकर संगठित विरोध कर रहे हैं, जिससे आदिवासी मतदाताओं का एकजुट होना तय माना जा रहा है।
भाजपा की दुविधा: एक तरफ भाजपा हिंदुत्व की विचारधारा से जुड़े मतदाताओं को साधना चाहती है, तो दूसरी ओर सरना कोड को मान्यता देने पर आंतरिक विरोध की संभावना है।
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क्या सरना कोड बदलेगा झारखंड की राजनीतिक दिशा?
बिलकुल संभव है। सरना धर्म कोड की मांग अब केवल धार्मिक नहीं रही, बल्कि यह आदिवासी पहचान, अधिकार और राजनीतिक अस्तित्व से जुड़ा गंभीर मुद्दा बन चुका है। जहां झामुमो और कांग्रेस इसे जनभावना से जोड़कर आगे बढ़ रहे हैं, वहीं भाजपा इस मुद्दे पर सावधानी से चल रही है ताकि वह दोनों वर्गों को नाराज़ न करे।
आने वाले समय में धरना, प्रदर्शन और राजनीतिक बयानों की तेज़ी इस मुद्दे को और गरमाएगी। फिलहाल सभी की निगाहें इस पर टिकी हैं कि क्या केंद्र सरकार जनगणना में सरना कोड को मान्यता देगी, या यह विषय और गहराता जाएगा।