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Ahilyabai: ऐसा क्या हुआ था कि देवी अहिल्याबाई ने सुना दी थी बेटे को मौत की सजा, जानें खबर में

होलकर वंश की महारानी अहिल्याबाई होलकर की आज जयंती है। जब देश में सती होने की कुप्रथा हुआ करती थी, उस दौर में अहिल्याबाई होलकर ने होलकर वंश कमान संभाली। कहा जाता है कि उन्होंने अपनी प्रजा को अपनी संतान से भी ज्यादा प्यार किया। न्याय ऐसा कि अपने बेटे की गलती के लिए उसे मौत की सजा सुना दी। उन्हें लोग लोकमाता कहकर संबोधित करते थे। उनका सादगीपूर्ण जीवन, धर्म, संस्कृति और राष्ट्र के लिए समर्पण ऐसा था कि उन्हें द फिलॉसफर क्वीन की उपाधि दी गई। शिव भक्ति के अलावा नित्य नर्मदा दर्शन व मछलियों को दाना खिलाना व गरीबों को दान देना उनकी दिनचर्या में शामिल था। अहिल्याबाई ने महिलाओं को सशक्त बनाने के लिए भी काफी काम किया। उन्होंने महिलाओं के संपत्ति का अधिकार दिया साथ ही उन्हें सशक्त बनाने के लिए अस्त्र शस्त्र की शिक्षा भी दी।

पिता के घर मिला सैन्य प्रशिक्षण

अहिल्याबाई का जन्म 31 मई 1725 को महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले के जामखेड कस्बे के ग्राम चांडी में हुआ था। अब इस जिले को अहिल्यानगर कहा जाता है। उनके पिता मनकोजी राव शिंदे मराठा सेना में एक सैनिक थे। जो बाद में नायक बने। माता सुशीला बाई भी गांव के एक सामान्य किसान परिवार से थीं।

मराठा सैनिकों के परिवार को महिलाओं को कुछ सैन्य प्रशिक्षण देकर आत्मरक्षा का अभ्यास कराया जाता था। इसका कारण यह था कि जब गांव के युवा सैन्य अभियान पर होते तब योजना पूर्वक असामाजिक तत्व गांव पर धावा बोल देते थे। सीमा के गांवों को लूट के साथ महिलाओं को भी निशाना बनाया जाता था। इसलिये शिवाजी महाराज ने सैन्य परिवारों की महिलाओं और गांव की बेटियों को आत्मरक्षा के लिये शारीरिक सामर्थ्य बढ़ाना और कुछ शस्त्र प्रशिक्षण देना शुरू किया था। अहिल्याबाई अपनी माता के साथ तीर कमान और भाला चलाना सीख गई थीं। माता सुशीला बाई शिवभक्त थीं, जिसके कारण अहिल्याबाई भी शिव की भक्त बन गईं। वे बिना पूजन किये जल भी ग्रहण नहीं करती थीं। आत्मरक्षा के साथ उन्हें अच्छी शिक्षा भी दी गई थी।

29 वर्ष में पति का निधन

 

एक ग्रामीण परिवेश के एक अति साधारण सैनिक परिवार में जन्मीं अहिल्याबाई आगे चलकर राजरानी और महारानी बनीं। 1733 में उनका विवाह इंदौर के महाराजा मल्हार राव होलकर के पुत्र खांडेराव होलकर से हुआ। तब उनकी उम्र महज आठ साल थी। खंडेराव उनसे दो वर्ष बड़े थे। यह बाल विवाह था। इसलिये अहिल्याबाई विवाह के चार वर्ष तक मायके में ही रहीं। 1737 में उनका गौना हुआ। अब वे एक सामान्य सैनिक की पुत्री से राजवधू बन गई थीं।

उनका व्यक्तिगत जीवन विपत्तियों से भरा रहा

अहिल्याबाई होलकर बिंदु से विराट तक किताब में रमेश शर्मा लिखते हैं, ‘’उनका व्यक्तिगत जीवन विपत्तियों से भरा रहा है। उन पर दुःख और शोक के मानों पहाड़ टूटे, पर वे स्थिर रहीं। जब मात्र 29 वर्ष की थीं, तब पति का निधन हो गया। फिर ससुर और संरक्षक मल्हारराव जी का निधन हो गया। फिर पुत्र का निधन, फिर दौहित्र नत्थो का निधन, फिर दामाद का और फिर अपने पति की चिता पर बेटी का सती होना सब उन्होंने अपनी आंख से देखा था।” जब खांडेराव होलकर का निधन हुआ तो मल्हारराव जी ने अहिल्याबाई को सती होने से रोका और राजकाज से जोड़ा।

अपने ही पुत्र को सुनाई मौत की सजा 

एनसीआरटी की पुस्तक अहिल्याबाई में वीरेंद्र तंवर ने लिखा है कि मल्हारराव की मृत्यु के बाद उनका पौत्र मालेराव मालवा का सूबेदार बना। लेकिन उसका आचरण ठीक नहीं था जिससे अहिल्याबाई काफी दुखी रहती थीं। अहिल्याबाई पूजा-पाठ करतीं। गरीबों और ब्राह्मणों को दान दक्षिणा देती रहतीं। मालेराव को यह सब पसंद नहीं था। वह इसे धन की बर्बादी समझता था। वह प्रजा के साथ कठोर एवं निर्दयतापूर्वक व्यवहार करता। ब्राह्मणों को सताने में उसे अधिक आनन्द आता था। कहा जाता है कि ब्राह्मणों को जो अन्न, मिठाई आदि दिये जाते उसमें वह सांप, बिच्छू रख देता था। जैसे ही वे लोग उसे उठाते उन्हें जहरीले कीड़े काट लेते। वे बेचारे दर्द से तड़प उठते। उनको तड़पते और चीखते देख कर मालेराव बहुत खुश होता था। महेश्वर में एक जड़ी-बूटी बेचने वाला था। निर्दोष होते हुए भी मालेराव ने उसकी हत्या करवा दी थी।

 

अहिल्याबाई पर बहुत कठोर मानसिक आघात हुआ

 एक दिन अहिल्याबाई ने आदेश दिया- मालेराव को हाथी से कुचलवा दिया जाए। वह कुल का कलंक है। अधिकारियों ने मालेराव को हाथी के पैरों तले कुचलवा दिया। इस घटना से अहिल्याबाई पर बहुत कठोर मानसिक आघात हुआ। वे इतनी दुखी हुईं कि सब कुछ छोड़कर, एकांतवास करने का विचार किया। पर जल्द ही अपनी प्रजा का ध्यान आया और अपने कर्तव्य का बोध हुआ, जैसे ससुर मल्हारराव के कहने से सती होने का विचार छोड़कर राजकाज में लगी थी, फिर से वैसा ही हिम्मत जुटाकर, कर्त्तव्य कर्म में जुट गईं।

महिलाओं को दिया संपत्ति का अधिकार 

अहिल्याबाई स्वयं एक भावना प्रधान महिला थीं। महिलाओं के सम्मान और अधिकार के प्रति वे अधिक संवेदनशील थीं। वे कभी भी पुरुषों की उपस्थिति में महिलाओं की व्यथा नहीं सुनती थीं। उन दिनों एक नियम था। यदि किसी पुरुष का निधन हो जाए और उसकी कोई संतान न हो तो उसकी सारी संपत्ति राजकोष में चली जाती थी। यदि पुत्र का निधन हो गया और कोई पुरुष उत्तराधिकारी न हो तो इस संपत्ति पर भी महिला का कोई अधिकार नहीं होता था। अहिल्याबाई ने यह नियम बदला तथा पति या पुत्र के निधन पर मां अथवा पत्नी का अधिकार सुनिश्चित किया।

एक सौ तीस तीर्थ स्थलों और घाटों का निर्माण कराया 

 

वे इंदौर की शासक थी पर उनकी दृष्टि व्यापक थी। उन्होंने पूरे भारत राष्ट्र में सांस्कृतिक पुनर्जागरण का अभियान चलाया। देश का ऐसा कोई क्षेत्र नहीं जहां उन्होने मंदिर, प्रवचन कक्ष, अन्नक्षेत्र, विद्यालय या व्यायाम शाला की स्थापना न की हो। सुदूर बद्रीनाथ, हरिद्वार, केदारनाथ में धर्मशालाओं और अन्नसत्रों का निर्माण कराया। कलकत्ता से बनारस तक की सड़क का निर्माण कराया। बनारस में अन्नपूर्णा का मंदिर, गया में विष्णु मन्दिर और घाट उन्हीं के बनवाए हुए हैं। इसके अतिरिक्त सोमनाथ, अयोध्या, मथुरा, द्वारका, रामेश्वर, जगन्नाथ पुरी आदि एक सौ तीस स्थानों पर मंदिर, धर्म शालाएं बनवाई। अहिल्याबाई ने अपने पति खांडेराव और ससुर मल्हारराव की स्मृति में भी इंदौर राज्य की सीमा के भीतर और अन्य राज्यों में विधवाओं, अनाथों, दिव्यांग लोगों के लिए आश्रम बनवाए। अहिल्याबाई ने 13 अगस्त 1795 को अपने जीवन की अंतिम सांस ली।

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